एक पल का ख़याल


क्यूँ इस तरह ये तबीयत बदल रही है,
जीने की नहीं मरने की ख्वाहिश हो रही है......
क्यूँ इस तरह रूठे बैठें हैं सब,
की खुद से भी नजरें छुप रही हैं......
क्या बात है की आज अकेले हैं हम,
क्यूँ बिन बताये दुनिया हमसे रुसवा हो रही है.....
फिर वही मोड़ आ गया है ज़िन्दगी में,
किसी के लिए हमें खुद से नफरत हो रही है.....
हर बार क्यूँ ये इम्तहान लेता है तू खुदा,
तेरे ही बन्दों की खातिर ज़िन्दगी ये चल रही है....
किस किस को समझाएं अपनी मासूमियत का राज,
क्या ये बेहतर नहीं की उन्हें सिर्फ हमसे ही नफरत हो रही है ?
ज़िन्दगी के हर पैमाने को दिल से पिया हमने,
क्या ग़म है गर वही ज़िन्दगी को जला रही है.....
ईमान औ वफ़ा की सजा मिली हमें तो समझे,
आज खुदगर्जी की - जीने की - सजा हो रही है......
क्यूँ इस तरह से आज ये वक़्त नासूर है,
की हर पल को आज -  हर पल से - नफरत हो रही है.....

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