आत्ममंथन

आशाओं और अभिलाषाओं के फेर में....
कभी कभी एक दिन ऐसा भी आता है .....
जब एकाकी मन विचारशील हो उठता है .....
और फिर उठता है प्रश्न....
जीवन की सार्थकता का ....
मूल्यों के उद्देश्यों का .....
और वक़्त के साथ बीतते हुए जीवन के अभियोजन का!


बहुत थक चूका हूँ मैं फितरतों से लड़कर...
मगर वो कहाँ हैं जो जीने मुझे दें...
कहाँ उड़ चला था हवा में महक सा ....
मगर जिंदगी अब ठहर सी गयी है...
बहुत देर चलता रहा हूँ मैं गिरकर...
मगर राह वो है की थमती नहीं है...
कहाँ सजता था ख्वाहिशों में महल भी....
मगर आज सपनों में भी रंग नहीं है...
न सोचा कभी की है क्या जिंदगी ये.....
न जाना कभी क्यूँ ये चलती घडी है...
सजा हूँ बहुत, सजती दुनिया बहुत है.....
मगर सच तो ये है की ये सच नहीं है....
था भूला हुआ मैं, मिला क्यूँ ये जीवन....
मगर क्या खबर थी, वक़्त यूँ कट रहा है.....

Comments

Post a Comment