कई रोज से बस यही चाहत है दिल में,
कोई मुझे वक़्त की लगाम तो दे...
बेतहाशा भागता है ये, जाने किस ज़िद में.....
इन आख़िरी लम्हों को जीनें की मोहलत तो दे....
ख़त्म हुआ जा रहा है अरसों का सिलसिला....
दीखता नहीं, बूझता नहीं, आगे का फ़लसफ़ा....
सांसें मेरी अगर यहीं थम जातीं तो शायद बेहतर
होता....
सोच के घबराता हूं मैं – जिंदगी के थपेड़ों का
दर्द.....
जिंदगी का हर एक पेहलू जो अब तक था – बदलने को है....
वो सुकून, वो मस्ती, वो यारी, वो दोस्ती, वो आरजू –
बदलने को है....
बंधे रह जायेंगे हम सभी अब बस सामाजिकता के बंधनों
में....
बेफ़िक्री और आज़ादी से निकल उलझ जायेंगे जिंदगी की
झंझटों में....
हो सकता तो इस ग़म को आँसुओ की गंगा में बहा देता...
पर ये तो है अडा जलने को – दिल में जिंदगी की सुलगती
हुई मशाल बनकर...
वक़्त से दिल की आरज़ू की इक्तला तो की मैंने....
बढ़ता रहता है वो मेरे रोम-रोम की ख्वाहिश को अनसुना
कर कर.....
चाहता हूं की हर बीतते लम्हें में एक ज़िन्दगी जीं
लू....
आज़ाद परिन्दें की तरह उडूं और बेख़ौफ़ निगाहों से देख
लूं इस दुनिया को कुछ और....
चाहता हूं की हर एक ख्वाब, हर एक ख्वाहिश का आज मैं
इज़हार कर दूं....
शायद तुम्हारी आँखों में आंसूं देखकर, मेरी भी आँखें
नम हो जाएँगी जरूर....
कई रोज़ से बस यही चाहत है दिल में....
Comments
Post a Comment