जरूरी तो नहीं

ये जरूरी तो नहीं की हर ख्व़ाब हकीक़त का फ़लसफ़ा बन जाये....
वो मुहब्बत भी क्या जो क़त्ल के डर से ख्व़ाब भी न देखे...

इन पंक्तियों में कही बात के चार मूल स्तम्भ हैं - ख्व़ाब, हकीक़त, मुहब्बत और क़त्ल

पीछे से शुरू कर के बताना चाहता हूँ की...

क़त्ल तो मुहब्बत करने वालों का भी होता है और ख्वाबों का भी
वो और बात है की दोनों में फर्क मुझे मालूम तो नहीं...

मुहब्बत इंसान से भी होती है और ख्याल से भी
खुदा बदलने से इबादत को आंकना, मुझे मालूम तो नहीं....

हकीक़त केवल कोशिशों का अंजाम है तो नहीं
नसीब और कोशिश की फितरत का रिश्ता, मुझे मालूम तो नहीं....

ख्व़ाब तो सबब हैं केवल हौसलामंदी, वाकिफ़ी, और फुर्सत के
कौम की हमदर्दी से रिश्ता, ये जरूरी तो नहीं....

सबब = Consequence, वाकिफ़ी = Exposure/Awareness, हौसलामंदी = Ambition,
कौम = Race, हमदर्दी = Compassion 

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