मंजर

किसी शायर ने कहा था...
जज्बातों की दुनिया में,
प्रखर, तुम होश न खोना...
ये क्या मंजर है की होश की खातिर ही सब जज्बात भूल रहे हैं....

राह चलते एक योगी यूँ ही मिला मुझको...
कहा की उलझनों में जब फसो,
प्रखर, तुम "उस" को याद करना....
ये क्या मंजर है की उलझनों में सब फसे हैं एक "उस" की खातिर...

एक बूढ़े आदमी ने कुछ सोच कर बोला...
अधिक से अत्यधिक की दौड़ में,
प्रखर, तुम भाग मत लेना...
ये क्या मंजर है की हर दिशा ही उस दौड़ का मैदान है...

कहीं तो मुझसे गलती हो गयी है,
ज़माने को समझने में,
यदि ऐसा न होता तो,
ये नामुमकिन था की सारी इंसानियत एक ढाँचे में ढल जाती...

कहीं तो मुझसे गलती हो गयी है,
फितरतों को पहचानने में...
कोई तो बात होगी की रोज सडकों पे...
बचपन मर रहा है चंद दानों की खातिर...

देनी ही पड़ती हैं कुर्बानियां कमजोर कड़ियों को,
वक़्त जब निर्माण करता है बदलती सभ्यताओं का,
बदलाव से लेकिन, प्रखर, कहाँ है की डरता हो,
ये मंजर है की मुझको शैतानियत की बू सी आती है...









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