क़िताब

बेसुध सा लिखते जा रहा था,
पन्नों पे पन्ने भरे जा रहा था, 
जाने किस कारण सोचा,
जिंदगी की क़िताब को जरा पलट तो लूँ....

देखता हूँ बोहोत से पन्ने ऐसे हैं, 
जिन्हें शायरी से सजाया तो था मैंने...
नजाने वक़्त ने कैसे उनकी स्याही को उड़ा डाला है......

पुराने नज्मों के खो जाने का बहुत ग़म तो नहीं मुझको, 
मगर मै सोच में पड़ जाता हूँ...
गर यही है फितरत वक़्त की....
गर यही है नसीब नज्मों का...
तो क्या मकसद रहा फिर लिखते रहने का ? 
कहीं शायरी लिखना हमारी ग़लती तो नहीं? 
कहीं ये कुछ और लिखने की वक़्त की फ़रमाइश तो नहीं....

खतरों से भरा है इस किताब को पलटना...
यूँ सोच में पड़ जाना....
कहीं क़दम जो फिसले तो न जाने कहाँ रुकेंगे, 
अपनी तो फ़िक्र नहीं मुझको, 
पर जनाजें न जाने कहाँ कहाँ उठेंगे...



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  1. https://www.youtube.com/watch?v=oeezOI2gGMQ

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