मेरा बचपन का शौक था
साईकल की सवारी...
शाम के चार बजते ही
निकल पड़ने की जल्दी
और माँ के धूप ढलने
तक मुझे रोकने की कोशिश
हर रोज़ का वाक़या थे...
आज खुद से पूछता हूँ
क्यों आती थी मुझे
साईकल पे मौज
याददास्त पर जोर
डालने पर सब याद आता है...
मै इलाहाबाद में
म्योराबाद नाम के
क्रिस्चियन मोहल्ले में साईकल चलाता था
जमीन के छोटे टुकड़ो
पर
रंगीन सपनों के
अजीब-ओ-ग़रीब घरोंदे...
मै घंटों घरों को
देखता हुआ साईकल की सवारी करता था
जो घर पसंद आते थे
उनके आस पास से कई
बार साईकल घुमाता था
मै कोशिश करता था
उन घरों के बाहरी
स्वरुप से
उनके भीतरी गुण तक
पहुचने की
जो घर इन दोनों
मानदंडो पर पसंद आते थे
उनके सामने मेरी साईकल
हर दिन दस्तक देती थी
शायद कहीं उन दिनों
में ही मैंने समझ लिया था
हर चीज जो पसंद आये उसे
हासिल करना जरूरी नहीं
पर ये जरूरी है की
सिर्फ़ बाहरी स्वरुप पर न आँका जाए
बाहरी स्वरुप से
भीतरी गुण को आंकने की कोशिश तो
शायद जीवन पर्यंत
चलेगी...
बचपन से किए गए इस
अभ्यास से कुछ निपुड़ता तो आ गयी होगी
तभी तो तुम्हे देखते
ही दिल ने कह दिया
की तुम्हारे लिए मै
ठीक नहीं हूँ
और मेरे मन ने तुरंत
साईकल मोड़ ली
लेकिन फिर भी हर दिन
ये साईकल...
बचपन की तरह
अनजाने ही
पसंदीदा मकानों के
सामने दस्तक दे ही देती है
शुक्र है कोई मेरी
साईकल देखता नहीं
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