माँ

आज मैंने फेसबुक पर
मदर्स डे का उन्माद देखा
तो सोचा की मैं भी
अपनी माँ से आज कुछ लिखकर कहूँ
यूँ तो वो माँ है
उसे मुझे समझने में कभी
शब्द-औ-जुबान पर
निर्भर नहीं होना पड़ा
लेकिन फिर भी
कहीं कुछ कहने की लालसा है
जो शब्दों की मांग करती है....

मुझे इस बात का बहुत ग़म है
की बचपन की सबसे हसीन लम्हों की स्मृतियाँ
मेरे दिमाग में कहीं ऐसी जगह पर हैं
की मै उन्हें मिल नहीं सकता
बस कुछ छोटी-छोटी सी बातें हैं
जिनका दूर से अक्स नज़र आता है
और मै अपने ही जीवन के
बिन्दुओं को जोड़ने लग जाता हूँ....

ऐसा ही एक बिंदु आज याद आ रहा है मुझे
मै ग्रीष्म की रातों में
नींद में प्यास महसूस करता था
और आलस्य कहूँ या नींद की जकड़
या उन दिनों की राजशाही
की मैं उठने की बजाए
पानी-पानी पुकारता था...
कच्ची उम्र के बालक की
कच्ची नींद की उस
कच्ची पुकार से भी
माँ उठ जाया करती थी
और इतने नाजुक तरीक़े से पानी पिला देती थी की
कच्चे स्वप्नों का
कच्चा सिलसिला
एक पल को भी टूटता न था ...

अब हमारी नींद की जुबान को कोई सुनेगा...
उसकी एहमियत समझेगा
इस बात की हम अपेक्षा भी नहीं करते...
ग्रीष्म अब भी पड़ता है
नींद में प्यास आज भी लगती है
पर मै पानी-पानी नहीं पुकारता
खुद ही सपनों को तोड़कर
पानी पीने चला जाता हूँ
शरीर की पानी की आवश्यकता और
नींद के स्वप्न लोक में से
अब एक को चुनना पड़ता है
सब कुछ दिला देने वाली माँ
अब साथ नहीं होती....

मै आज भी अपने बाल उतने ढंग से नहीं झाड़ पाता
जैसे माँ बचपन में झाड़ दिया करती थी....
मै अब बगैर रात का खाना खाए नहीं सोता...
मालूम है की अगर सोया
तो जगाकर आधी नींद में खिलाने
माँ यहाँ नहीं आयेगी...
पाठकों से निवेदन है की यह न समझें
की मेरी माँ इस दुनिया में अब नहीं रही
मेरी माँ जिन्दा है
और जीवन के बसंत की उम्मीद भी
लेकिन मैं उन लाखों अभागों में एक हूँ
जो माँ के रहते उससे दूर रहने को मजबूर होते है
जिन्हें महानगर नौकरी और अवसर तो देता है
लेकिन ऐसी नहीं की माँ के साथ रह सकें
हमारी माँ होती तो है
पर साथ नहीं होती ....
इस बेहतर जिंदगी की अभिशप्त होड़ में
हम बहुत सस्ते में अपना सर्वस्व लुटा देते हैं
माँ हमें ढकेलती है खुद से बेहतर करने को
माँ हमें दूर भेजती है अपने स्वप्नों को जीने को
वो सपनें जिन्हें टूटने से
उसने हर रात बचाया था
वो आज भी उन्हें बचा रही है
पर माँ,
आज इस बच्चे को

तुम्हारी याद बहुत सता रही है.....

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