अंतर्बाधा

सबसे पहले
तुम्हारी बातों की दिलचस्पी के कारण
बात 'जरा' से 'ज्यादा' हुई
और जब बात हुई तो
बातों के असर से दिल कहाँ तक बच सकता था
सख्त दिल भी
धीरे धीरे
बात दर बात
पिघलने लगा
शायद थक चुका था
अपनी खुद की सख्ती से
या शायद इसकी मंशा ही थी
पिघलने की
जो भी हो
मैं तो सिर्फ दर्शक था
होने वाली चीजें हो रहीं थी
करने वाला कर रहा था
सिलसिलेवार तरीके से हम कोशिश करते रहे
खुद को और तुमको बचाने की
और सिलसिलेवार तरीक़े से ये कोशिशें नाक़ाम होतीं गयीं
बातों ही बातों में
आवाज़ में कब कशिश आ गई
और कब उसमें हम बह गए
पता ही नहीं चला
देखता हूँ तो अब यकीं होता है
तुम्हारे जिस इश्क़ में
अब तक के सब चाहने वाले डूबे
वहां भी पानी कम नहीं
तो सोच लिया
की जब डूबना ही है
तो क्यों न हर तरह डूबें
हर आयाम को देखते हुए
डूबने का पूरा आनंद लेकर 
शौक से डूबें
यही सोच कर आज हमने
अपनी अतर्बाधाओं  को तोड़कर
तुम्हारी निगाहों से
नज़रे मिला लीं हैं। 

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