नाकाबिल-ए-बर्दाश्त

अब इश्क़ सर चढ़कर
आंसुओं से निकलने लगा है
मिलन कभी हुआ नहीं
और विरह का ग़म इतना ज्यादा है

संभलता नहीं है, क्या करूँ
तेरा इश्क़ दरिया सा बहता  जाता है
जुदा हो, दूर हो - लेकिन फिर भी
पल-दर-पल इस बाढ़ का स्तर  बढ़ा ही जाता है

जिस्म का बुखार होता
तो दम तोड़ने से चला जाता
पर ये जो रूह का बुखार है ,
सुना है लाइलाज ही रह जाता है

मैं बेखुदी के नशे में चूर हूँ
और नशा दिन-ब-दिन बद से बदतर हुआ ही जाता है
बड़ी नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो गयी है बेक़रारी
और दूरियों का दौर है की बस चला ही जाता है

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