तुम जो मेरे हिस्से का समय
किसी और के साथ बिताती हो
अनेक पलों और यादों को जन्म से पहले मारती हो
क्या तब उसके भी हाथ वैसे ही दबाती हो?
या बस फ़िज़ूल ही मुझे इतना सताती हो?
मैं जानना चाहता हूँ
तुम जो तुम्हारे दिए दर्द की बातों से
मुझसे नाराज़ हो जाती हो
दर्द-ए-दिल पे आग गिरा जाती हो
क्या कभी उस दर्द को तुम महसूस कर पाती हो?
महसूस नहीं तो क्या कभी समझ भी पाती हो?
मैं जानना चाहता हूँ
तुम जो ईद के चाँद की तरह
कभी कभी मुझसे प्यार जताती हो
और सैकड़ों पलों के लाये संकल्प को चूर कर जाती हो
सच कहती हो या खेल कर जाती हो?
गर सच है तो जा कैसे पाती हो?
मैं जानना चाहता हूँ
तुम जिस स्वच्छन्दता की आदत
और जरूरत मुझसे जताती हो
और उसके इस्तेमाल से मेरा कत्ल कर जाती हो
क्या तब इसके अवगुण देख पाती हो?
देख पाती हो तो फ़िर कुछ बदल क्यों नहीं पाती?
मैं जानना चाहता हूँ
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