अस्थि कलश

मैंने अपने सपनों की अर्थी उठाई है
उन्हें खुद कंधा दिया है
उन्हें खुद आग लगाई है
घंटों तक बैठ के उनके तार तार को बेज़ार होते देखा है
गलते, पिघलते, जलते देखा है
अंत में जब सपनों की राख को
मैं गंगा में प्रवाहित करने ही वाला था
की तुमने आवाज़ लगा के मुझे रोक लिया
बड़ी ताकत है तुम्हारी आवाज़ में
वरना उस दिन मुझे रोकना आसान नहीं था
मैं रुक गया
मुझे लगा कि क्या पता तुम इन अस्थियों से
वापस उन सपनों को जीवन दान दे दो
तुमने वो नहीं किया
बल्कि तुमने मुहर लगाई
मृत्यु का प्रमाण पत्र दिया
और बस कह दिया
"अभी रुक जाओ"
रुक जाऊं?
बस अभी?
बड़ी ही दर्दनाक और बेरहम थी ये बात
पर दिल मजबूर था
तुम्हे ना कहना इसने सीखा कहाँ था अभी?
अब हालात ये हैं की मैं अपने प्यार और सपनों की
इन अस्थियों के मटके को गले से बांध के घूम रहा हूँ
तुम जब तक कहो
साथ चल रहा हूँ
कभी कभी जी करता है
बस यहीं इसी जगह
इस मटकी को फोड़ के
चला जाऊं
लेकिन फिर हो नहीं पाता
मेरी मरी भावनाओं से मांगी
तुम्हारी अकेली और आखिरी ख़्वाहिश
को मैं अधूरा छोड़ नहीं पाता
कोई जरूरी है क्या मरी भावनाओं को
इतना महत्व देना
लेकिन फिर हो नहीं पाता
तुम पनाह दो या न दो
मैं आप अपनी भावनाओं की बेकद्री कर नहीं पाता
गर्दन पे रस्सी का निशान बन गया है
दर्द होता है वहां
झुके झुके अभी से
सर पूरा उठने में दर्द करता है
मुझे डर लगता है
मैं शफ़क़ के आने के पहले
रात के इस अंधेरे से तंग आकर
कहीं ये मटका
यूँ ही
फोड़ न दूँ

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