बालकनी

कई दिनों तक एक कबूतर को
मैं बालकनी से भगाता रहा
बड़ी गंदगी करते हैं ये कबूतर
बड़ा शोर करते हैं
मैं हर रोज़ उसके घोंसले को फेंकता
वो हर रोज़ चुपचाप नया घोंसला बना लेती
मैं भी किसी अंग्रेज़ हुकूमत सा अड़ियल
वो भी किसी गाँधी सी जिद्दी

आखिर एक सुबह देखता हूँ
कबूतर मुझसे कुछ छुपा रही है
अंडा दिया है, से रही है
आज इसकी आँखों में अजीब सा डर था
एक करुण पुकार थी
मैंने इस घोंसले को रहने दिया
हर दिन उस अंडे को देखना
मेरी दिनचर्या बन गयी
एक दिन उस अंडे में से
चूज़ा बाहर निकला
कमज़ोर, डरपोक और बेहद भोला
वो चील की परछाई से डरता था
हालाकिं ये बात कम नहीं
की वो उस परछाई को पहचानता था
खैर, डरती तो उसकी माँ भी थी
पहले से अब कुछ ज्यादा
आख़िर एक दिन
उसके उड़ने का वक़्त आ ही गया
बड़ा डरते डरते, हिचकते, फुदकते
उसने छलांग लगा ही दी
थोड़ी थोड़ी सी उड़ान के बाद
वो बैठ जाता था
शायद खुद का हौसला बढ़ाता था
शायद ख़ुद को ये समझाता था
की ये आसमां उसका भी है
थोड़ा थोड़ा करके ही तो उड़ते हैं न

एक दिन वो अचानक गायब हो गया
अभी तक दूर तक उड़ना तो सीखा भी न था
आसमां की उंचाईयों को देखा भी न था
गायब हो गया
न जाने उसे किसी चील ने फाड़ खाया
या सिर्फ़ खौफ़नाक दस्तूर ने
शायद बची हुई पूरी ज़िन्दगी ही
उसकी माँ मेरी बालकनी में रही
मैं उसे अब भगाता नहीं था
आखिर उसने वहां अपना सब कुछ पाया था
और वहीं सब कुछ खोया भी था

ऐसे ही बेवक्त और बेवजह
मैंने बहुत से सपनों को
ग़ायब होते देखा है
सपनें जिनके मैंने घोंसले बनाये थे
जिन्हें अपने बदन की गर्मी से सेया था
जिन्हें हर ख़तरे से बचाने की कोशिश की थी
जिनके लिए मैं चीलों से डरता था
उन सपनों को अचानक गायब होते देखा है
वक़्त के भक्षण का शिकार बनते देखा है
इस बार ये आख़िरी घोंसला था
आख़िरी कोशिश
स्वप्नों के सिलसिले का
पूर्णविराम

बाकी की ज़िन्दगी अब
इन बालकनियों के
तीर्थ में गुजारनी है
या शायद इस आख़िरी बालकनी के तीर्थ में ही
सब सध जाए
आखिर आख़िरी कोशिश में
हर हार का सबक होता है
सबसे बड़ी कोशिश होती है

बालकनी
जहाँ इन सपनों के सूक्ष्म जीवन काल का
पूरा इतिहास पड़ा है
उनसे जुड़ी आशाओं और तमन्नाओं का
सारा सार छुपा है
उनके जीवित काल का
एक आभास छुपा है
जीवन के जीवित पलों का
उन्माद छुपा है  
वहाँ हासिल ज़िन्दगी की असलियत बेनकाब होगी
वहां सपनों की तकदीर बेनकाब होगी
वहां ज़िन्दगी का असली चेहरा हर रोज़ दिखेगा
वहां से मैं उन दिनों को देखूंगा
जब मैं सपनों को उड़ने का मौका दे रहा था
जब सपने उड़ने की कोशिश कर रहे थे
बड़ा डरते डरते, हिचकते, फुदकते
थोड़ा थोड़ा करके उड़ते, ठहरते, उड़ते
सपनें जिन्हें वक़्त खा गया
उनकी भोली तस्वीर
वहां उस बालकनी में दिखा करेगी
और मैं भी शायद
बची हुई पूरी जिंदगी
वहीँ गुजार दूं 

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