मैं तन्हाइयों के
घुप्प अंधेरों में
डूबते हुए
रौशनी के दरवाज़ों की ओर
कई बार
हाथ बढ़ाता हूँ
वो हर बार
जो उस दरवाज़े को
बंद करते हैं
उनके दो पल के देखे चेहरे
याद करता जाता हूँ
ताकि जब रौशन वतन
मुक़म्मल हो
तो फ़िर कभी इनसे
कोई इत्तेफ़ाक़ न हो
Comments
Post a Comment