बचपन में हमारा घर एक व्यस्त सड़क पे था
माँ मुझे बाहर नहीं जाने देती थी
कहती थी कि उसे गाड़ियों से डर लगता है
और खराब लड़कों से भी
तो मैं सारी दोपहर
छत पे गेंद के साथ खेला करता था
गेंद रबड़ की होती थी
मेरी सबसे अज़ीज़ दोस्त
लेकिन कुछ हफ्तों में ही
उसमें दरारें आ जाती थीं
दरारों के आने के बाद
कुछ ही दिनों में
गेंद दो टूक हो जाती थी
और मेरी दोपहर नागवार
फिर नई गेंद आती थी
कभी एक दो दिन में
कभी एक दो हफ़्ते में
और ज़िन्दगी फिर कुछ दिन के लिए ठीक हो जाती थी
यूँ कहूं तो
मेरी एक गेंद बहुत सालों से साथ थी
मेरी सबसे अज़ीज़
पर अब खो गयी है
या यूं कहूँ की मैंने खो दी
अब ये दोपहर बड़ी नागवार हो गयी है
माँ, मुझे नई गेंद दिला दो
ऐसी जो फिर न कभी खोये न टूटे
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