ऐतबार

चाँद को देखकर रोटी समझ रहा था वो
तो चाँद भी उस सितारे को तिनका समझ बैठा
न जाने क्या बात है चाहने वालों की किस्मत की
हमेशा ही उन्हें आंका अधूरा जाता है
न जाने ये दौर ऐसा हो गया है
या सब वक़्त एक ही से थे

क्या खता होती है किसी को चाहना
क्यों लोग चाहनेवाले को छोटा समझने लगे हैं
क्यों कोई इश्क़ की आवारगी समझता नहीं
क्यों लोग इस से इस कदर डरने लगे हैं

हर कोई बस दामन सँभाले चल रहा है
हर अनजान अब भेड़िया लगने लगा है
इस कदर डर गई है इंसान की फ़ितरत
आदमी मुहब्बत से भागने लगा है
परवानों पे गीत लिखे जाते थे जब
न जाने वो वक़्त कैसे खो गया है

कभी वो वक़्त था कि एक झलक में इश्क होता था
और याद बनकर दिलों में उम्र भर जलता था
अब तो इतने शिकारी घूमने लगे हैं सड़कों पर
की एक तरफ़ आंखों में हवस होती है
और एक तरफ हवस का खौफ़ होता है
न जाने कब कहाँ मार दी गयी संज़ीदगी
न जाने किसने इंसानी ऐतबार का कत्ल किया है

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