जाने किस बात की कमी सी है
जिस्म है, दिमाग है, रूह भी है मेरी
लेकिन मेरे वक़्त में कहीं मेरी ही कमी सी है
जाने कैसे किसी के जाने से
खोखला महसूस करता है कोई
मैं तो जी रहा हूँ ऐसे
जैसे किसी मर्तबान में
पेंदी की कमी सी है
वक़्त है तो नहीं मेरे पास लेक़िन
जब भी आ जाये तो तेरी कमी सी है
बेवक़्त बेमौक़े आ जाती है तेरी याद
इन खयालों में तमीज़ की कमी सी है
यूँ तो सब कुछ ठीक ही है ज़िन्दगी में लेकिन
ज़िन्दगी की परिभाषा में ही कुछ कमी सी है
तुझे मैं पुकार नहीं सकता
और बाकी जहाँ को पुकारूं
तो मेरी आवाज़ में असर की कुछ कमी सी है
तेरी बधाइयों से ही तो
छोटी छोटी बातों में खुशी घुलती थी
अब तू ही नहीं तो
हर जश्न में खुशी की कमी सी है
कहाँ तो किसी मंदिर की
जरूरत ही न हुआ करती थी
इबादत की खातिर
और आज ये दिन है कि
एक बस तेरे साथ में न होने से
मंदिरों में भी भगवान की कमी सी है
मुझे एहसास तो है लेकिन समझ तो नहीं
जाने किस बात की कमी सी है
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