जाते जाते
उसने कुछ कहा भी नहीं
और उम्रभर की कसक दे गया
मैंने खुद ही तो अपनी रातों में आहें भरी हैं
सपनों के अलाव जलाये हैं
एक गुलज़ार बाग़ को ख़ाक किया है
फिर इनका मुज़रिम कौन हुआ?
शायद मैंने खुदा को भी नाराज़ किया है
लेकिन उसकी परवाह किसे है
जाते जाते
उसने कुछ कहा भी नहीं
और उम्रभर की कसक दे गया
मैंने खुद ही तो अपनी रातों में आहें भरी हैं
सपनों के अलाव जलाये हैं
एक गुलज़ार बाग़ को ख़ाक किया है
फिर इनका मुज़रिम कौन हुआ?
शायद मैंने खुदा को भी नाराज़ किया है
लेकिन उसकी परवाह किसे है
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