ख़्वाहिश

पता है
मैं बोलता तो बोहोत हूँ
बोल सकता बोहोत हूँ
शब्दों को जानता हूँ
उनसे खेलता हूँ
लेकिन
मैं बोलना चाहता नहीं
चाहता हूँ
की बोलने की ज़रूरत
खत्म हो जाये
लेकिन
ऐसी तो अब
दुआएँ भी नहीं मांगता हूं मैं
आखिर
बेवज़ह
तेरे मेरे दरमियाँ
ऊपर वाले को क्यों शर्मिंदा करना

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