जैसे ही घर लौटता हूँ
कुछ मेज़ पे बैठ कर
और कितनी तो शेल्फ से ही
चिल्लाती हैं
किताबें मुझपर
"कहाँ सारा दिन नीलाम कर आते हो
हर रोज़
और फिर यू मायूस लेट जाते हो
किसी बंधुआ मज़दूर की तरह?
गर कुछ वक़्त हर रोज़ मेरे साथ बिता लेते
तो तुम्हारे चेहरे की रौशनी
यूँ धीमी न पड़ने लगी होती
इसी उम्र में
सोचो कभी गर ऐसा हो जाये
कि इस ज़िन्दगी से तंग आकर
मैं ही
ये दरो दीवार छोड़ के भाग जाऊं तो?"
Comments
Post a Comment