इंतज़ार



दिन चले आते हैं 
हर रोज़
उस अख़बार की तरह
जिसे 
घर बदलने के बाद
बंद कराने की 
किसी ने ज़हमत नहीं उठाई
जैसे आते हैं वैसे ही पड़े रहते हैं कहीं
कुछ देर उनपर सूरज चमकता है
फिर रात ढल जाती है 
कोई उन्हें देखता तक नहीं
उनकी परतों को 
खोल कर पढ़ने के तकल्लुफ़ 
कोई नहीं उठता
उनमें लिखी हज़ारों कहानियों से
किसी का कोई वास्ता नहीं होता
मैंने भी अख़बार वाले लड़के को
इत्तला नहीं की है
मैं इंतेज़ार करता हूँ
शायद कोई क़द्रदान आएगा 
लेकिन ये जो दिन बीत रहे हैं 
खुले बग़ैर
शायद मैं उनका गुनहगार हूँ
शायद मुझे
ये इंतेज़ार नहीं करना चाहिए

(Picture: pxhere.com)

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