शामत

कुछ शाम गुनगुना गयी...
कुछ रात सहला गयी...
कुछ भोर ने रंग भरे...
कुछ सुबह ताज़ा सी,
ज़िन्दगी की शुरआत सी,
जो चाहने पे भी नहीं आती,
इस रोज़
यूँ ही आ गयी...
दिन, जो की
कुछ न कुछ दर्द दिए बग़ैर
कभी विदा नहीं करता,
आज यूँ ही
खाली हाथ लौटा रहा है..
अब शाम फ़िर होने आई है...
ये कैसा दिन बीता है?
क्या कोई
ख़ास शामत आयी है?

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