अपने मोहल्ले के लड़कों से
मेरी दोस्ती नहीं थी
माँ ने बाहर जाने कम दिया
या शायद मैं दोस्ती के लायक नहीं था
जो भी था
वो क्रिकेट खेलते थे
और मैं नहीं
मेरे मोहल्ले में
लड़के कैनवस की गेंद से खेलते थे
और मैं अकेला
अपनी छत पर
रबर की गेंद दीवार पर मरता
और उसके लौटने पर
हाथ से "बैटिंग" करता
दो साल में मैंने कोशिश की
दो बार
जन्मदिन के दिन मिलने वाली सालाना ख़्वाहिश में कैनवस की गेंद मांगी
और लेकर चल दिया
सड़क का खिलाड़ी बनने
गेंद नई थी
कैनवस की ही नहीं, कौस्को की थी
मुझे साथी गेंद के साथ मुफ़्त मिल गए थे
और मैं खुश था
लेकिन ये गेंद कुछ 20 मिनट के खेल के बाद
खो गयी
अभी आयी थी
अभी खो गयी
और खेल और साथियों को पाने की कोशिश
वहीं मर गयी थी
अगले वर्ष मैंने गेंद वही मांगी
लेकिन सड़क या मोहल्ले के लिए नहीं
बल्कि खुद के लिए
शायद तभी से मैंने
बराबरी की या बेहतर गेंद के ज़रिए
दोस्त बनाने बंद कर दिए
शायद तभी मैंने ये समझा
की जिसे मेरी कीमत ही नहीं
उसका मेरे तोहफ़ों पे कोई हक़ भी नहीं
तब से अब तक लेक़िन
एक भी दिन नहीं बीता दोस्त
जब मुझे
ये दीवार पर गेंद मारकर खेलना
पसंद आया हो
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