कहाँ ये दिन हैं

कभी जो छायी रहती थी मानसून की तरह
कहो, आज उसकी ख़बर तक नहीं
कभी जो उसके ख़यालों में बीत जाते थे दिन
उन दिनों में उसके ख़यालों की जगह तक नहीं
कहाँ अश्क़ झरते थे उसकी नाराज़गी पे
कहाँ दूरियाँ हमको बेकरार करती थीं
कहाँ उसके आने की ख़बर पे ख़ुशी से मचल जाना
कहाँ उसके जाने से मायूस होना
कहाँ उसकी खुदगर्ज़ीयों को
लापरवाही कहकर भूल जाना
कहाँ उसकी ख़ताओं से टूटे दिल को समझाना
और कहां ये दिन हैं
कि वो कहाँ है इसकी ख़बर ही नहीं
लेकिन यूँ नहीं समझना कि मेरी मुहब्बत में कमी थी
गर कमी होती जो मेरी मोहब्बत में
तो ये बात कभी महसूस नहीं होती

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