खुदा का ख़्याल आता है तो सोचता हूँ

खुदा का ख़याल आता है
तो नज़र में
पुरानी दुआओं का मंजर
कौंध जाता है
अब मैं मंदिर जाता हूँ
तो ज़मीर
उस आख़िरी मुलाकात जैसी अजीब ख़ामोशी में
घिर सा जाता है
सोचता हूँ
कि क्या आलम होता
अगर तुझे मैंने दुआओं में मांगा ही न होता
आखिर एक पुराना नाता था मेरा ईश्वर से
जो इस असाध्य स्वप्न की लोलुपता में
नष्ट भी हुआ और कलंकित भी
एक निर्भरता का विश्वास था जो भंग हुआ
स्वप्न टूटे सो टूटे, विश्वास टूटे, विश्रम्भ छूटे
खुदा का ख़याल आता है तो सोचता हूँ
कि क्या आलम होता
अगर तुझे मैंने दुआओं में मांगा ही न होता

Comments