हुकूमतें बदलती रहीं, कभी अकबर तो कभी नेहरु – जो ना बदली तो तक़दीर, जिनपर ये
हुकूमतें राज करती हैं | क्या कारण है की आजादी के ६५ साल के बाद भी हमारा देश
उन्ही सामाजिक बिमारियों के हल खोजने में विफल है जो आजादी के पहले थी | ‘... परन्तु
इतने वक़्त में कुछ तो बदला होगा’ - हाँ
बदलाव आया है – आज ये बीमारियाँ और भी वीभत्स और खतरनाक हो गयीं है – इन
बीमारियों के नाम हैं – गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और असंवेदनशीलता |
आप कहेंगे की हमारे आर्थिक परिवेश और विकास के क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव और
बेहतरी आई है – गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों का प्रतिशत आज काफी कम है और
जनसँख्या का एक बड़ा तबका आज पढने-लिखने में सक्षम है – इत्यादि |
जनाब गरीबी रेखा की तो बात मत कीजिये – ये वो लक्ष्मण रेखा है जिसे पार करते
ही (सीता के सामान भोला) हिंदुस्तान का गरीब तमाम सरकारी सुविधाओं से दूर होकर –
भुखमरी (रावण) की गिरफ्त में जा बैठता है| परन्तु आश्चर्यजनक तो यह है की आज के
लक्ष्मण ने इस रेखा को सीता के चरणों से काफी पीछे बनाया है, जो उसे रावण से बचा
पाने में अक्षम है |
गरीबी एक अंत ही नहीं, एक शुरुआत भी है – आर्थिक तंगी से मजबूर मनुष्य जब अपना
और अपने परिवार का पेट पालने में भी असफल रहता है तो ये असफलता उसे सभी प्रकार के
सामाजिक बंधनों से मुक्त कर देती है और जन्म होता है – हत्या, बलात्कार और अपहरण
जैसे जघन्य अपराधों का | और कहीं कहीं इसी तरह कुछ और भी औलादें पैदा होती हैं
जिन्हें हम दहेज़ हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, नारी उत्पीड़न, नशाखोरी इत्यादि का नाम
देते हैं |
परन्तु अकेले ग़रीबी समाज का गला नहीं घोंट सकती – इसके लिए तो आवश्यकता होती
है अंधकार की – अशिक्षा का अंधकार | “ पर हमारे समाज में तो शिक्षा का स्तर सुधरा
है – आज का सिर्फ़ अधिक जनसंख्या पढने-लिखने में सक्षम है अपितु हम अधिक डॉक्टर,
इंजिनियर, साइंटिस्ट, डिज़ाइनर और वकील बना रहे हैं और संपूर्ण जगत में हमने
सरस्वती पूजा से ही तो अपनी पहचान बनायी है – सुना है हमारे प्रधानमंत्री विश्व के
सबसे सुशिक्षित नेताओं में से हैं ” | हाँ यह सच है की आज अधिक विद्यालयों,
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से अधिक जनसँख्या पढ़कर निकल रही है परन्तु इस
कलामधारी जनता में कितनों को कलम की ताकत और मूल्य का अंदाजा है ये कहना भी
मुश्किल है | हमारी शिक्षा हमें लिखना-पढ़ना, गुणा-भाग करना तो सिखाती है परन्तु
सही मूल्य और जीवन के अभिप्राय का सही आंकलन नहीं सिखाती | हमारे विश्वविद्यालयों
से अधिक स्नातक तो निकलते हैं परन्तु अधिक मूल्यवान और संवेदनशील युवा नहीं |
हमारे विश्वविद्यालय तो बस एक रंदा हैं जो हरेक छात्र/छात्रा के मानस पटल पर अंकित
सुन्दर समाज के सपने को समतल किये जा रहा है ताकि वह बढ़ते हुए रोजगार के बाज़ार की
आवश्यकताओं को पूरा कर सकें |
आजादी के बाद सबसे पहले जनता का विश्वास तोडा कार्यपालिका ने, फिर साथ आयी
विधायिका और ऐसे में संचार (मीडिया) का चतुर्थ स्तंभ भी ज्यादा दिन पीछे न रह सका –
यदि किसी संस्था ने संवैधानिकता को बचाए रखने की लड़ाई लड़ी तो वो थी हमारी
न्यायपालिका जिसका आचरण भी पूर्णतः श्वेत न रह सका | और जब संपूर्ण समाज का
रक्त काला पड़ जाए तो उसे आवश्यकता होती है मूल्यवान, शिक्षित, संवेदनशील और
सेवानिष्ट युवाओं की जो समाज की शिथिल पड़ चुकीं रक्त-कोशिकाओं को फिर से जागृत कर
सकें – जो निराश हुए बगैर – अविरत गति से अंधकार को प्रकाश से दूर करते चलें |
परन्तु हमारी शिक्षा प्रणाली हमें मूल्य नहीं सिखाती – अपितु वह हमें ईर्ष्यालु,
अभिमानी, असंवेदनशील, निराश और स्वार्थी बनाती है | शायद यही कारण है की आरक्षण से
लाभ समाज को कम और उन्हें अधिक हुआ है जिन्हें आरक्षण से शिक्षा और रोजगार मिलें |
शायद यही कारण है की आज नए युवक भी भ्रष्ट आचरण से दूर नहीं रहे | और फिर शायद यही
कारण है की इस संपूर्ण समाज में – कुआचरण ही सदाचरण और सदाचरण – कुआचरण बन चला है
| और शायद यही कारण है की आज के इस समाज में भ्रष्टाचार अपराध-तुल्य नहीं बल्कि
शक्ति का सही उपयोग समझा जाने लगा है और यदि कोई विरला मूल्यों के साथ जीवन व्यतीत
करने की कोशिश करे तो उसे न सिर्फ तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है बल्कि कभी
कभी निराधार लांक्षनों और सामाजिक अलगाव का भी सामना करना पड़ता है | और कभी-कभी तो
लोग ऐसे आचरण को विवेकहीन भी बताते हुए दिखाई पड़ते हैं |
आप कहेंगे की मैंने तमाम अन्य बातों को नजरअंदाज कर दिया है – जैसे राजनीति का
अपराधीकरण, अपराध का राजनीतिकरण, बदहाल मूलभूत जन सेवाएं, धीमी न्याय प्रणाली आदि
| परन्तु मेरा विचार यह है की समाज की कुछ बीमारियाँ अन्य बीमारियों की जनक होती
हैं और इसलिए इलाज के प्रयास तभी असर दिखा सकते हैं जब वो इन जनक बीमारियों पर
केन्द्रित हों – परन्तु भारत निर्माण में हमने अधिक ध्यान बीमारी को नहीं बल्कि
उसके लक्षणों को दिया है और हमें सही दिशा में अपनी प्राथमिकियों को बदलने की
आवश्यकता है |
यदि समय रहते उचित प्रयास नहीं किये गए तो बीमारियां कर्किक (कैंसरस) हो जाती
हैं और अंगो को काटना ही आखिरी उपाय बचता है – परन्तु समाज के सन्दर्भ में यह इतना
सरल भी नहीं रहता और एक बीमार समाज चंद सुधारों (रिफार्म) के सहारे कालचक्र पर
धीमी गति से बढ़ता रहता है और कष्ट भोगते हैं समाज के निचले तबके और मध्यम वर्ग के
लोग |
यदि हमें संपूर्ण समाधान चाहिए तो हमें एक नयी पहल करनी होगी – ये समझना होगा
की इस देश को सर्व-शिक्षित नेता की नहीं अपितु एक संवेदनशील नेता की आवश्यकता
है – हमें अधिक स्नातकों से ज्यादा अधिक दृढ़निश्चयी युवाओं की आवश्यकता है – हमें
अधिक विदेशी निवेश से ज्यादा अधिक संकल्प की आवश्यकता है और यदि कुछ बदलना है तो
सबसे पहले हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को बदलना है – ताकि अंको की नहीं अपितु
मूल्यों की कीमत हो और समाज की जनक बीमारियों को इलाज हो सके |
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