काहे के हम तोहरे दुआर आयीं

नोट: इस कविता का किसी भी वास्तविक व्यक्ति अथवा स्थान से सम्बन्ध केवल एक संयोग है. सम्मान के साथ, इस कविता की प्रेरणा भोजपुरी के महान कवि स्वर्गीय कैलाश गौतम जी को समर्पित है. 
भूमिका: ग्राम्य जीवन के भोले भाले लोगों की जिंदगी की कुछ छोटी मोटी बातों को भोजपुरी की कविता के माध्यम से कहने की कोशिश है. एक छोटे भाई ने अपनी बेटी की शादी का निमंत्रण अपने बड़े भाई को भेजवाया है. ये कविता उस बड़े भाई के मस्तिष्क में चल रही कश्मकश है - 

काहे के हम तोहरे दुआर आयीं, 
काहे आपन मुह छोट कराईं,
का मिली जायीं तोहरे पुछ्वारी से, 
जईबअ तुहहूँ चार कंधा के सवारी से.

काहे के हम तोहरे दुआर आयीं, 
काहे आपन मुह छोट कराईं..

आईल रहलन बनरसे से जब तिलकहरू, 
ताकत रहल भर गाँव देख के अईसन गबरू, 
पप्पू क अम्मा कहलिन हमसे - नइखे तनिको अचार, 
कईसन लागी छुछै भोजन, कयिला तनी विचार...
तोहरे दुअरिया भेजली चंपा के, मांगे बदे अचार, 
ऊ मंगतै रहि गईल, नइखहि देह्लिन पनासे वाली ओधार...

काहे के हम तोहरे दुआर आयीं, 
काहे आपन मुह छोट कराईं...

अउर त ल ओ दिन क बतिया,
चलत रहल जब धान रोपइया, 
मेड़िया तनी धसक का गईल,
अझुरी भर पानी बहि का गईल,
लगलअ तूँ तव नाँव सुनवै, 
कइसन-कइसन बात सुनावै,
ऊ त कह मास्टर जी रहलन, 
ओनही हमार आपा समहरलन, 
आदर-सम्मान क त बतिये गईल,
ओ दिन मेड़िया के संघे,
 तोहार लिहाजऔ धसक गईल
आज तू हमैं घोरावताड़अ,
आपन कइली भुलावताड़अ,
काहे के हम तोहरे दुआर आयीं, 
काहे आपन मुह छोट कराईं...

खेते क झगड़ा घरे ले अउलअ,
रसोईं-दुआर अल्गौज़ी करउलअ,
अब रोज क झगड़ा - तमाशा भइल बा, 
कुटुम्ब क इज्जत बजार भइल बा,
सुनावै ला सब रोज बातन क बतिया, 
चम्पा के अम्मा, कुम्हारे क बिटिया,
कहैं कुल इहै बा ठकुरन क धाती,
निबुआ-कटहरी क लड़ाई, लड़िकन के माती,
झोंटे-झुटव्वल कहै सब बचल बा, 
परधाने के घर में, ढेबरियो बुझल बा,
कहाँ त परमुख जी क रौला रहल,
दुआरे पे नेतन क रेला रहल,
अ कहाँ बाटे लउकी - पपीता क झगड़ा,
गईया के गोबरी के फेकनी क झगड़ा, 
बताव रे भयवा, रे अम्मा के लइका,
काहे के हम तोहरे दुआर आयीं, 
काहे आपन मुह छोट कराईं...

लेकिन गुड़िया के मुह देखीनाँ,
अम्मा के दिहल बचन सोचीनाँ,
जताहूँ बकत कहत रहल के,
लड़कपन माफ़ करै भईयन के,
गुड़िया के बगल बिठउले रहल,
कपरवा एकर सहरउते रहल,
कहलस - "कहाँ केहू अइसन खयाल करी, 
जइसन एही गुड़िया हमार करल",
आखिर में एतने बोललस अम्मा, 
बस एतने बतिया ओकर याद रहल,
याद बा एकरे भईले पर,
सिकड़ी किनलस उ बदले पर, 
बाबूजी क दिहल कंगनवा,
झट से लैई लेहलस सुनरवा,
अम्मा आज जियत होती तो,
ओकरे रहत गुड़ियवा बिहत होती तो, 
गहना गुड़िया बहुत गड़ावत, 
बक्सा के साज बहुत जुटावत, 
कईसहूँ नहीं तब मानत अम्मा,
का का नहीं बनावत अम्मा, 
लड्डू, पेड़ा, खाझा, टिकिया,
मालपुआ, गुल्जामुन, हलुवा,
ऐत्ता कुल उ खुदे बनावत,
बजारे से न कुछ मंगवावत, 
जे केहू ओके रोकत - टोकत, 
कमी-बेसी जे केहू झोंकत,
एतना ओके बात सुनावत,
ससुरारी के याद दिलावत,
गावत रहत महिन्नो सोहर,
गरियो गावें में देखही क तेवर, 
अम्मा बिन कुल स्वर सुनै बा, 
घर - आँगन का? गाँव सुनै बा, 
गुड़िया के चेहरा देखतानी, 
गोदिया में एके खेलावतानी,
खेतवा में जब लल्का चप्पल छोड़ले रहल, 
टारच से ओके खोजतानी,
दुइये दिन में बिटिया आपन, 
चल जाई घरवा छोड़ के आपन, 
एकरे कन्यादान में बबुवा, 
हम सिलिक के कुरता झाड़ के आयिब, 
ओकरे आगे क भल फिर सोचब, 
के हम काहे के तोहरे दुआर आयीं?

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