बाज़ार पहले कुछ कम हुआ
करते थे
गिने चुने लेकिन जाने
माने बाज़ार
और एक दूसरे से बिलकुल
भिन्न
कहीं सिगरा बाज़ार या
गोदौलिया
कहीं सिविल लाइन्स या
कटरा
कहीं हज़रतगंज या
अमीनाबाद
कहीं करोल बाग़ या कनाट प्लेस
बाक़ी जगहों पर बाज़ार ‘लगता’ था
होती तो बस दुकानें थीं
कहीं करोल बाग़ या कनाट प्लेस
बाक़ी जगहों पर बाज़ार ‘लगता’ था
होती तो बस दुकानें थीं
वो भी करीब करीब हर तरह
की बस एक
दुकान के मालिक जानने
वाले गुप्ता जी होते थे
जो कभी कभार पैसे कम
पड़ने पर सामान उधार पर भी दिया करते थे
हुआ तो मेरे साथ कई बार
यूँ भी
की पैसे तो नहीं थे पर
समान मिल गया
अब मॉल खुल गए हैं
वहां कार्ड में पहले से
बैलेंस होना जरूरी है
वहां उधार शब्द हराम है
शायद इस युग में ग़रीब
होना वैसा ही अपराध है
जैसा की अमेरिका में
म्क्कार्थिस्म के ज़माने में कम्युनिस्ट होना था
अब तो इन पुराने बाजारों
की भी नीयत पहले जैसी नहीं रही
अब कटरा में भी प्यूमा
बिकता है
और अमीनाबाद के रेस्तरां
भी एसी लगाते हैं
ऐसा लगता है बाज़ार अपना
रंदा पहले अपने ही ऊपर चलाता है
अब देखता हूँ
बाज़ार ‘यूबिक्विट्स’ हो
चले हैं
सर्वव्यापी और
सर्वशक्तिशाली
अब तो मै ऐसे बहुत लोगों
से मिल चुका हूँ
जिनके अनुसार बाज़ार
सर्वज्ञानी, अनुपम, अजेय है
जिनके अनुसार बाज़ार एक
निष्कपट न्याय संगत शक्ति है
जिसके अदृश्य हाथ से
सिर्फ़ सामाजिक हित की रक्षा ही होती है
जिसके कार्यों के नतीजों
या समाघात की आलोचना
केवल तानाशाही की ओर ले
जाती है
खैर फिलहाल मेरे लिए
बाज़ार सर्वव्यापी तो हो गया है
फ्लिपकार्ट और अमेज़न अब
घरेलु शब्द हैं
बाज़ार अब मोबाईल फ़ोन में
है
अब हमें बाज़ार तक चल के
जाने की जरूरत भी नहीं बची
और अब वो शौक भी नहीं
रहा
यूँ बाज़ार के मोबाइल फ़ोन
में आ जाने से
कभी कभी ये मुगालता तो
होता है की वो मेरी जेब में है
गोया ग़लत ख़रीद की एक चपत
ही याद दिला देती है
की किसकी जेब में कौन है
और हाँ बाज़ार की शक्ति
को बढ़ता भी इन्ही आँखों से देखा है मैंने
कितना कुछ बदल गया है
पिछले चंद दशकों में यहाँ
अब बाज़ार केवल श्रम की
ही नहीं
श्रमिक की भी कीमत लगाता
है
कला की ही नहीं
कलाकार की भी कीमत लगाता
है
हम सबकी इस बाज़ार ने
कीमत लगा रखी है
और हमारे सभी प्रयत्नों
का मूल प्रयोजन
केवल इस कीमत को बढ़ाना
होता है
वो कीमत कितनी भी हो
हमें हमेशा कम लगती है
क्योंकी शायद कहीं कुछ
है हमारे अन्दर
जो सिर्फ इस कीमत से
संतुष्ट नहीं होता
खैर हकीक़त तो ये है की
अब हर काम हर बात की एक
तय कीमत है
ईमान की एक कीमत
जान की एक
और इंसान कौन है इस बात
से ये दोनों ऐसे बदल जाते हैं
जैसे घोड़ों की नस्ल देख
कर दाम लगाये जा रहे हों
अब ऐसा शायद कुछ भी नहीं
बचा जो बिकाऊ न हो
हाँ लोगों का ये ग़म जरूर
है की कीमत मनचाही नहीं मिल रही
अब बाज़ार का वो अदृश्य
हाथ इतना अदृश्य भी नहीं रहा
बाज़ार अब विदुर है और हम
सब अंधे धृतराष्ट्र
और इसलिए अब बाज़ार ही तय
कर रहा है
हमारी पसंद-नापसंद
हमारे शौक और ज़रूरत
हमारे मूल्य और हमारी
नैतिकता
हमारे नेता, मंत्री और
पीएम
बाज़ार बता रहा है की
क्योंकि बीमार हैं
उद्योग और दिवालिए हैं उद्योगपति
इसलिए बाज़ार तय कर रहा
है की
बैंक को बचाना किसान को
बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है
और बाज़ार की बात मान कर
जनप्रतिनिधियों के
महाधिपति
गांधारी की तरह आँख पर
पट्टी बाँध अंधे हो जाते हैं
और राहत के अनुदान की
मांग करने वाले देशद्रोही
हाँ एक बाज़ार है जिसकी
रौनक में कमी आई है
नहीं रौनक में कमी कहना असत्य
है
इस बाज़ार की हालत
महाभारत के युद्ध के अंत
में गांधारी की सी हो गयी है
ये बाज़ार है विचारों का
मोदी समर्थक से न समझें की मैंने
यहाँ फिर से असहिष्णुता की बहस छेड़ दी
मेरा कहना तो बस इतना है की
कहीं कुछ तो बड़ी मूलभूत सी ग़लती हो रही है
की प्रसाद और दिनकर के देश में मै ख़ुद को कवि कहता हूँ
और जो आपने पढ़ा उसे कविता
की लता और रफ़ी के देश में हनी सिंह बॉलीवुड के सर्वाधिक लोकप्रिय गायक हैं
की हम किशोरों को कारागार भेज कर सुरक्षित महसूस करते हैं
की विकास और मताधिकार में से हमें एक को चुनना पड़ता है
और हम विकास को चुनते हैं
शायद मै अकेला नहीं ये महसूस करने में की
कहीं कुछ तो बड़ी मूलभूत सी ग़लती हो रही है
मोदी समर्थक से न समझें की मैंने
यहाँ फिर से असहिष्णुता की बहस छेड़ दी
मेरा कहना तो बस इतना है की
कहीं कुछ तो बड़ी मूलभूत सी ग़लती हो रही है
की प्रसाद और दिनकर के देश में मै ख़ुद को कवि कहता हूँ
और जो आपने पढ़ा उसे कविता
की लता और रफ़ी के देश में हनी सिंह बॉलीवुड के सर्वाधिक लोकप्रिय गायक हैं
की हम किशोरों को कारागार भेज कर सुरक्षित महसूस करते हैं
की विकास और मताधिकार में से हमें एक को चुनना पड़ता है
और हम विकास को चुनते हैं
शायद मै अकेला नहीं ये महसूस करने में की
कहीं कुछ तो बड़ी मूलभूत सी ग़लती हो रही है
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