नए विचारों का
एक उगता हुआ
नन्हा सा पौधा होता है
जमीन खोजता
पानी ढूंढता
जड़ें संभालता
वो पौधा अनेक बातों की भीड़ में
कहीं दब सा जाता है
वो पौधा एक छायादार वृक्ष हो सकता था
मैंने उस वृक्ष की कल्पना भी की थी
पर कई बार मैंने
ऐसे पौधों को दबते देखा है...
कई बार कुछ नज्में
अचानक ही आ जाती हैं ज़ेहन में,
जैसे अचानक भीड़ में कोई
जानी पहचानी सुगंध मिल जाये,
मैं उसे देखता भी हूँ
और उसके स्वरूप तक पहुँचता भी हूँ
लेकिन उस नज्म को शब्दों में बाँध नहीं पाता
उस इत्र को बोतल में ढाल नहीं पाता
वो नज्म आजाद है – फिज़ा की तरह
शायद उसे मेरे शब्दों की ज़रूरत ही नहीं
शायद उसे बगैर शब्दों के
लोगों के जहन तक पहुँचने का हुनर मालूम है
कई बार ऐसी नज्मों को
बस महसूस किया है मैंने....
कुछ कवितायेँ बिन बताये अचानक चली आती हैं
जैसे बादलों के बगैर बिजली कौंधी हो आसमान में,
और मै भीड़ में तन्हाई खोजने लग जाता हूँ
ताकि इस दौलत को बटोर सकूं,
लेकिन ढ़ेरों छोटी बड़ी आवाज़ों,
चिंताओं और तस्वीरों की भीड़ से
नाराज होकर या शायद डरकर
मैंने उन कविताओं को जाते देखा है,
ऐसे की जैसे फ़रिश्ते,
हमारी मेहरूमियत से उम्मीद हारकर,
हमें हमारे हाल पर छोड़कर,
अनेक पुकारों को अनसुना करके,
वापस ज़न्नत को जा रहे हों...
कई बार देखा है मैंने,
दबते पौधों को...
फिज़ा में गुम होती नज्मों को...
दूर जाती कविताओं को...
हाँ, मैंने उन काव्यों को दूर जाते देखा है
मानवता को अमूल्य धन हारते देखा है
Beautiful :)
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