ज़माना गुजर गया

अब तो इक ज़माना गुजर गया
उस दौर के बीते हुए
की जब कभी किसी इंसान की चीख़ सुनाई पड़ती
तो चौंककर सभी आ जाते थे
उस इंसान के आस पास
हर कोई तो मरहम लगा नहीं सकता
लेकिन हालात पूछकर
थोड़ा ढाढ़स ज़रूर बाँध देते थे|
कवि बहुत थे तब शायद
या शायद भावुकता अधिक थी,
जो भी हो
ऐसे किसी दर्द्नांक किस्से को
वो कभी भी जाया नहीं जाने देते थे|
चींखें सुनी नहीं की बस बैठ गए
मानवता पर तंज कसने
समाज पर प्रश्न उठाने
और सपनों के संसार से हकीकत की दूरी बताने,
ऐसे जैसे की वो सपनों का संसार नहीं
बल्कि हकीकत में कोई गंतव्य हो...
और तो और लोग भी इतने अजीब थे
की इन्हें बड़ी तवज्जो देते थे
और बाकायदा इन प्रश्नों पर लम्बी गुफ्तगू होती थी...
अब तो एक ज़माना गुजर गया
उस दौर के बीते हुए

अब किसी गैर की चींखों से परेशां होना तो दूर
अब ऐसी बातों पर हालात-ए-वतन पर चर्चा करना तो दूर
वक़्त ऐसा आ गया है की
लोग अपने ही मुँह पर
कपड़े के जकड़न बाँध कर बैठे हुए हैं
की कहीं कोई सिसकी
ग़लती से ग़लत इशारा न कर दे
अब तो चौराहों पर या तो ख़तरनाक सन्नाटा होता है
या फिर उससे भी ख़तरनाक
रटी-रटाई बातों का बेमानी सा सिलसिला
और कभी कभी सबसे ख़तरनाक
हमसे अलग दिखने, खाने, बोलने, करने या सोचने वाले लोगों के
 खून की मांग हो जाती है
और कहीं अगर कोई हादसा ऐसा हो जाये
जिससे सोती हुई आत्मा हिल उठे
और कोई अज्ञात ताक़त बंद आँखों को खोलने लगे
तो कोई उससे भी बलवान ताकत
कहीं न कहीं से आकर
इन आँखों को खुलने से रोक लेती है
और यहाँ तक की यदि किसी ने
कुछ जरा सी हकीक़त देख ली हो
तो ये ताक़त उसे भुला देती है
ज्यादातर तो ये बलवान ताक़त
हम सबके गुप्त अँधेरे अहं की
एक संयुक्त आवाज़ होती है
न जाने क्यूँ हम सबकी आत्मा का प्रकाश
अब कभी कोई संयुक्त आवाज़ नहीं उठा पाता...
सुना है कभी एक ऐसा भी दौर था
जब इस आवाज़ का उठना
रोजाना की सी बात थी
लेकिन अब तो इक ज़माना गुजर गया
उस दौर के बीते हुए....
और ये दौर बदलने की बात
सिर्फ इन्ही मसलों तक सीमित नहीं
अब न तो वो ग़जलों फसानों के इश्क होते हैं
न कोई कहीं कुर्बानियां देकर आंसू ही पीता है
सभी के घर तो अमेज़न ख़ुशियों की डिलीवरी कर रहा है
फिर अब आखिर कहाँ कौन गमजदा रह गया है?
ये गमजदों का दौर बीते हुए
अब तो इक
ज़माना गुजर गया



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