कहीं ऐसा तो नहीं

क्या कभी तुम गौर करती हो
की क्या पता तुमने 
अपनी तकदीर को कब कहाँ हराया हो
वो जब तुम कहकर मिलने नहीं आयी तब
या तब जब तुम्हें 
उस वक़्त की सहूलियत के आगे कोई फिक्र ही नहीं थी
या तब जब तुमनें मेरी लाख फरियादों को 
सुन के अनसुना कर दिया था
या जब चैट विंडो के सैकड़ों नोटिफिकेशन से 
तुम्हें चिढ़ हो गयी थी
कहीं ऐसा तो नहीं 
कि तक़दीर ने भी 
तुमसे हार मान ली हो? 

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