शह और मात

ज़िद कहाँ करता हूँ मैं
ज़िन्दगी की हर शह को 
स्वप्नों की मात से
स्वीकार ही तो किया है हर बार 
तुझे भी तो हारा हूँ 
कितनी बार
लेकिन अब दिल अब ज़िद पे आमादा है 
तेरे, मेरे और सबके विवेक से
हमारी मुहब्बत की ज़िद 
पूर्वकथनों और पूर्वाग्रहों से 
निःस्वार्थ प्रेम के स्वार्थ की ज़िद 
पूरे संसार से 
चाहत को छीनने की ज़िद
शायद ये ज़िद लाज़मी ही नहीं बल्कि न्यायोचित्त भी है 
वो क्या कहतें हैं
विचार के वक़्त के बारे में? 

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