सवाल

तुम्हें लेकर मैंने जिन रंगीन से ख़्वाबों को बुना है
क्या तुम उन्हें देखोगी भी नहीं?
तुम्हारी और मेरी वो कहानियाँ जो सिर्फ़ मेरे ज़ेहन में हैं
क्या तुम उन्हें सुनोगी भी नहीं?
ये मुहब्बत जो इबादत की हद तक जा चुकी
क्या तुम उसे छू कर देखोगी भी नहीं?
कैसे तुम्हें कौतूहल नहीं होता?
कैसे तुम्हें बेक़रारी नहीं होती?
होती है तो तुम उसे कैसे दबा पाती हो?
क्या एक रोज़ के लिए भी
उसे खुली साँस लेने न दोगी?
क्या तुम एक रोज़ भी 
इस मुहब्बत को जीने न दोगी?

Comments